सबकी पगड़ी को हवाओं में उछाला जाए ….
सोचता हूं कोई अखबार निकाला जाए …..
वाह राहत इंदौरी साहब , कल-आज और कल की पत्रकारिता का फलसफा आपने चंद अल्फाज में पिरो दिया । लेकिन सवाल ये है, कि फिक्रमंद कौन है ? समाज के पहरुए , नैतिकता के सिपहसालार , सत्ता की नुमाइंदगी करने वाले या शासन की बागडोर संभालने वाले । हकीकत जरा सी तल्ख है …. अपना दामन दागदार ना हो , इसकी फिक्र तो हर किसी को हो सकती है , लेकिन सामाजिक सरोकार और बेहतरी की बातें जुमलों में ही सिमटी नजर आती है । हालांकि बाजारवाद की शिकार पत्रकारिता में मूल्यों की गिरावट हैरत की बात नहीं । रही सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी । एक ऐसा प्लेटफॉर्म जो मंथन , चिंतन और विद्वता से परे है । यहां ना तो व्याकरण की फिक्र है , ना तथ्यों की … पूरी आजादी है जब जो मर्जी मनमुताबिक परोस दिया ।
खैर , ऐसा नहीं , कि कलम के पुजारी मिट चुके हैं । हां एक नजरिया ये प्रजाति विलुप्तप्राय श्रेणी में शामिल होने की राह पर जरूर है । शेष .... इंतजार करें ।