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करमा त्यौहार उमंग और उत्सव का त्यौहार है प्रकृति और रिश्तों को जोड़ता है करमा

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*प्रकृति और रिश्तों को जोड़ता है करमा …
आलेख -लक्ष्मी नारायण लहरे
कोसीर । भारत देश अनेकता में एकता का देश है ।यहां की संस्कृति अन्य देशों से अलग है यह देश मुनियों ,महात्मा , संत ,महापुरुषों
का जन्म भूमि है ।जहाँ गंगा – जमुना की लहरों में जीवन बसता है ।जहाँ प्रकृति की सुंदर रचना है वह भारत मेरा सबसे सुंदर और न्यारा है जहां बारो माह तीज – त्यौहार और उत्सव है
करमा त्यौहार उमंग और उत्सव का त्यौहार है । यह भाई – बहन के अटूट रिस्ते का त्यौहार है यह त्यौहारों का त्यौहार है इस त्यौहार से किसान की खुशी जुड़ी है ।यह त्यौहार अच्छी बारिश के बाद फसल उगाते है औऱ फ़सल कार्य समाप्त हो जाती है तो इस त्यौहार को भाद्र पक्ष के शुक्ल पक्ष एकादशी को मनाया जाता है ।
आखिर क्या है करमा
करमा  झारखण्ड, बिहार, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़,असम  का एक प्रमुख त्यौहार है। मुख्य रूप से यह त्यौहार भादो (लगभग सितम्बर) मास की एकादशी के दिन और कुछेक स्थानों पर उसी के आसपास मनाया जाता है। इस मौके पर लोग प्रकृति की पूजा कर अच्छे फसल की कामना करते हैं, साथ ही बहनें अपने भाइयों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करती हैं। करमा  पर झारखंड के लोग ढोल और मांदर की थाप पर झूमते-गाते हैं।
झारखण्ड में करमा उत्सव
करम त्यौहार में एक विशेष नृत्य किया जाता है जिसे करम नाच कहते हैं । यह पर्व हिन्दू पंचांग के भादों मास की एकादशी को झारखण्ड, छत्तीसगढ़, सहित देश विदेश में पुरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस अवसर पर श्रद्धालु उपवास के पश्चात करमवृक्ष( मुहए का वृक्ष ) का या उसके शाखा को घर के आंगन में रोपित करते हैं और दूसरे दिन कुल देवी-देवता को नवान्न (नया अन्न) देकर ही उसका उपभोग शुरू होता है। करम नृत्य को नई फ़सल आने की खुशी में लोग नाच-गाकर मनाया जाता है।
कर्मा नृत्य छत्तीसगढ़ और झारखण्ड की लोक-संस्कृति का पर्याय भी है। छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के आदिवासी और ग़ैर-आदिवासी सभी इसे लोक मांगलिक नृत्य मानते हैं। करम पूजा नृत्य, सतपुड़ा और विंध्य की पर्वत श्रेणियों के बीच सुदूर गावों में विशेष प्रचलित है। शहडोल, मंडला के गोंड और बैगा एवं बालाघाट और सिवनी के कोरकू तथा परधान जातियाँ करम के ही कई रूपों को आधार बना कर नाचती हैं। बैगा कर्मा, गोंड़ करम और भुंइयाँ कर्मा आदि वासीय नृत्य माना जाता है। छत्तीसगढ़ के लोक नृत्य में ‘करमसेनी देवी’ का अवतार गोंड के घर में हुआ ऐसा माना गया है, एक अन्य गीत में सारथी ( घसिया) के घर में माना गया है।
*यह दिन इनके लिए प्रकृति की पूजा का है। ऐसे में ये सभी उल्लास से भरे होते हैं। परम्परा के मुताबिक, खेतों में बोई गई फसलें बर्बाद न हों, इसलिए प्रकृति की पूजा की जाती है। इस मौके पर एक बर्तन में या बांस के टोकरी में बालू – मिट्टी भरकर उसे बहुत ही कलात्मक तरीके से सजाया जाता है। पर्व शुरू होने के कुछ दिनों पहले उसमें जौ ,उड़द ,मकई आदि डाल दिए जाते हैं, इसे ‘जावा’ कहा जाता है। बहनें अपने भाइयों की सलामती के लिए इस दिन व्रत रखती हैं। इनके भाई ‘करम’ वृक्ष की डाल लेकर घर के आंगन या खेतों में गाड़ते हैं। इसे वे प्रकृति के आराध्य देव मानकर पूजा करते हैं। पूजा समाप्त होने के बाद वे इस डाल को पूरे धार्मिक रीति‍ से तालाब, पोखर, नदी आदि में विसर्जित कर देते हैं।
उपवास
करम की मनौती मानने वाले दिन भर उपवास रख कर अपने सगे-सम्बंधियों व अड़ोस पड़ोसियों को निमंत्रण देता है तथा शाम को करम वृक्ष की पूजा कर टँगिये कुल्हारी के एक ही वार से कर्मा वृक्ष के डाल को काटा दिया जाता है और उसे ज़मीन पर गिरने नहीं दिया जाता। तदोपरांत उस डाल को अखरा में गाड़कर स्त्री-पुरुष बच्चे रात भर नृत्य करते हुए उत्सव मानते  हैं और सुबह पास के किसी नदी में विसर्जित कर दिया जाता हैं। इस अवसर पर एक विशेष  गीत भी गाये जाते हैं-
उठ उठ करमसेनी, पाही गिस विहान हो।
चल चल जाबो अब गंगा असनांद हो।।
गांव में जो हम लोग प्रायः कर्मा नृत्य देखते है या अभी तक जो देखा है या सुना है । शाम होते ही गांव का बैगा और जो कर्मा के आयोजन में जुड़े रहते है वे महुआ पेड़ के पास पहुंचकर उसकी पूजा अर्चना कर डाली को लाकर जिस स्थान में करमा करना होता है वहां पर बैगा के दुवारा पूजा पाठ कर स्थापित कर दिया जाता है फिर लोग उस जगह पर धीरे धीरे अपने हिसाब से पहुंचते है और उत्सव के रूप में मांदर – झांझ बजाकर कर नाचते हैं यह पुरा रात भर चलता है सुबह – सुबह करम डार को विसर्जन के पूर्व गांव में घुम -घुम कर एक दूसरे के घर जाते हैं और फिर तालाब में विसर्जन कर देते हैं ।
*इन दिनों कोसीर अंचल के आस -पास गांव में कर्मा त्यौहार मनाया जा रहा है ।
ग्राम पंचायत बरभाठा के में कर्मा त्यौहार हर्षोउल्लास से मनाया गया गांव के परिमल चन्द्रा ने बताया कि हमारे यहां हमारे पूर्वजों के लोग मनाते आ रहे हैं और उसी का निर्वहन मेरे दुवारा किया जा रहा है ।गांव में पूरे गांव के सभी वर्ग मिल कर इस त्यौहार को मनाते हैं ।
लक्ष्मी नारायण लहरे ‘साहिल’
युवा साहित्यकार ,पत्रकार
कोसीर ,सारंगढ़

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