प्रकृति की उपासना और पर्यावरण संरक्षण पर आधारित है छठ महापर्व, शाम को करेंगे छठव्रती डूबते सूर्य भगवान को अर्घ….

हमारे हर-समाज में छठी मइया की व्रत-पूजा की समृद्ध परंपरा रही है। हालांकि समय के साथ इस बहुआयामी पर्व के स्वरूप में कई बदलाव आए हैं। पर मूल स्वरूप वही है। सूर्य देवता इस त्यौहार के केंद्र में हैं।

सूर्य जीव जगत के आधार हैं। अत: यह पर्व सूर्य के प्रति आभार-प्रदर्शन के लिए भी मनाया जाता है। सूर्यदेव यह सिखाते हैं कि वही उगेगा। जो डूबेगा।

अत: छठ में पहले डूबते फिर अगले दिन उगते सूर्य की पूजा स्वाभाविक है। इस व्रत को करने वाला भगवान भास्कर के प्रति आभार प्रदर्शित करने किसी नदी, जल, तालाब, पोखर के पास ही जाता है अर्थात वह सूर्यदेव के प्रति जल और ताप का आशीर्वाद देने हेतु उन्हें प्रात: और सांध्य स्मरणीय देव के रूप में नमन करता है।

छठ पर्व यह बताता है कि निरोग रहने के लिए भी सूर्यदेव अत्यावश्यक हैं। सूर्य को रोगनाशक शक्ति माना जाता है। अत: छठ पर्व के समय लोग स्वास्थ्य को लेकर भी प्रार्थना करते हैं। यही कारण है कि हम सब रोग निवारण हेतु सूर्यदेव के प्रति आशाभरी नजरों से देखते हैं। यह वैज्ञानिक सत्य है कि भारत की जैव-विविधता। जीवन और स्वास्थ्य का मेल बिना सूर्य के बन नहीं सकता।

छठ पर्व यह सीख देता है कि प्रकृति अथवा सृष्टि में सब कुछ क्षणभंगुर है। समय के साथ बस रूपांतरण होता रहता है। अतः अहंकार का त्याग कर हर छोटी से छोटी वस्तु का सम्मान करना चाहिए। जो उदय हुआ है उसका अस्त होना तय है। इसकी अनुभूति छठ के अवसर पर अस्त होते सूर्यदेव तथा उगते सूर्य की आराधना के दौरान होती है।

छठ पर्व भगवान भास्कर के प्रति पृथ्वीवासियों को नमन करने का विशेष अवसर प्रदान करता है। इस हरी-भरी वसुंधरा का जन्म सूर्य से ही हुआ है। पृथ्वी पर जो भी जीवन है। उर्वरता है। सौंदर्य है। भगवान भास्कर की ही देन है। चार दिवसीय छठ पर्व स्वयं को भाव-विचार-श्रम-कर्म से पवित्र कर कृषि उत्पादों। फल-फूल। अन्न-जल एक साथ भगवान भास्कर को श्रद्धापूर्वक अर्घ्य के रूप में समर्पित करने का दिन है।

छठ पर्व की वैज्ञानिकता बहुत ही महत्वपूर्ण और वैश्विकता लिए हुए है। कार्तिक माह में सूर्य के दक्षिणायन होने के साथ षष्ठी-सप्तमी को जब यह चंद्रमा के साथ समकोण पर होता है। तब इसका आकर्षण बल संतुलित रहता है। इतना ही नहीं, कद्दू और विशेष चावल (साठी) का सुपाच्य भोजन शरीर और मन को एकाग्र रखने में मदद करता है।

यह पर्व न केवल भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति को दिखाता है। बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकीय चक्र का अंग भी है। बाजारीकरण के आधुनिक दौर में भी यह पर्व पूरी तरह से प्राकृतिक चीजों के साथ प्रकृति की उपासना पर आधारित है।

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