सक्ती की राजनीति में लगातार हो रहा बदलाव, कांग्रेस के दो बड़े नेता अपने पुत्रों के लिए राजनीतिक जमीन तैयार करने में जुटे

सक्ती। बदलते सक्ती की बदलती राजनीति अब लोगों को हैरान करने के लिए तैयार हो रही है। जहां डॉ चरणदास महंत का दबदबा है वहीं पूर्व मंत्री और सक्ती रियासत के राजा सुरेन्द्र बाहदुर सिंह का कद है।
वैसे तो सक्ती विधानसभा शुरू से ही राज परिवार की विरासत रही है। सक्ती विधानसभा क्षेत्र, सक्ती रियासत की कर्मभूमि रही है, यहां के राज परिवार ने आजादी के बाद से लगातार 50 साल तक राज किया है। इस दौरान 1952 के पहले चुनाव में कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने पर भी निर्दलीय के रूप में लीलाधर सिंह चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। इसके बाद से 1998 तक यहां राज परिवार के सदस्य विधायक बनते आए, कुमार स्व पुष्पेंद्र बहादुर सिंह ने दो बार यहां का प्रतिनिधित्व किया। वहीं सर्वाधिक कार्यकाल सक्ती राजा सुरेन्द्र बहादुर का रहा। हालांकि इसके बाद 1998 के चुनाव में लवसरा गांव के सरपंच रहे बीजेपी उम्मीदवार मेघाराम साहू से कांग्रेस प्रत्याशी सक्ती राजा को पराजित होना पड़ा। इसके बाद मेघाराम लगातार दो बार विधायक बने। फिर श्रीमती सरोजा राठौर ने मेधाराम साहू को मात दी और विधायक चुनी गई, लेकिन इसमें भी लोगों का मानना था कि मेधाराम साहू चुनाव हारे हैं, और अगले ही चुनाव में भाजपा ने नगरदा गांव के डॉक्टर खिलावन साहू को उम्मीदवार बनाया और सरोजा चुनाव हार गईं। कांग्रेस की साख धीरे धीरे कमजोर होती चली गई। फिर अचानक चमत्कारी तरीके से देश और प्रदेश के कद्दावर नेता मानें जाने वाले डॉ चरणदास महंत ने विधानसभा चुनाव में लड़ने का मन बनाया। यहां बताते चलें कि डॉ महंत 2014 का कोरबा लोकसभा चुनाव हार गए थे और अपनी राजनीति में चुनावी भूमि तलाश रहे थे। चूंकि डॉ महंत पूर्व में जांजगीर लोकसभा के सांसद रह चुके थे, और जांजगीर जिले के कद्दावर नेता कहलाते ही थे। इसी बीच एक और किस्मत आजमाइश भी थी कि अगर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता में आती है तो कहीं ना कहीं वरिष्ठ कांग्रेसी का फायदा मिलेगा और मुख्यमंत्री की दौड़ में पहला नाम रहेगा। लेकिन शायद किस्मत में मुख्यमंत्री से भी बड़े संवैधानिक पद लिखा था और डॉ महंत को उनके वरिष्ठ होने का फायदा मिला और उन्हें विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया। बहरहाल अब हम स्थानीय राजनीति की बात पर आते हैं। पाठकों को बताना चाहूंगा कि अब कहीं ना कहीं पूर्व कद्दावर नेता राजा सुरेंद्र बहादुर अपने दत्तक पुत्र जिनका हाल ही में राज्याभिषेक भी किया गया राजा धर्मेंद्र सिंह के लिए राजनीति की जमीन तैयार करने में लगे हुए हैं तो वहीं डॉ महंत भी अपने पुत्र सूरज महंत के लिए राजनीतिक थाली परोसने के लिए तत्पर दिख रहें हैं। इन दोनों कुमारों के बीच भाजपा कहीं ना कहीं पूरी तरह से सिर्फ देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे का फायदा मिलने की उम्मीद में आईसीयू में पड़ी है। वहीं कांग्रेस का संगठन भी वेंटिलेटर पर है। भाजपा के नेता कभी कभार जागते तो हैं लेकिन कांग्रेस यहां जोगी की तर्ज पर महंत समर्थक बन कर रह गई है। कांग्रेस के पूर्व नेताओं की जयंती या पुण्यतिथि भी मानने के लिए सक्ती कांग्रेस के पास बिल्कुल भी समय नहीं हैं। 31 अक्टूबर को देश की लौह नारी कहलाने वाली पूर्व प्रधानमंत्री स्व श्रीमती इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि और देश के लौहपुरूष सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती सिर्फ सक्ती कांग्रेस ने इसलिए नहीं मनाई कि प्रदेश कांग्रेस द्वारा कोई दिशा निर्देश नहीं दिया गया है। मतलब साफ है कि वर्तमान सक्ती कांग्रेस को सिर्फ प्रदेश संगठन के पत्र या फिर डॉ महंत के आदेश का ही पालन करना हैं, बाकी कांग्रेस के किसी भी नेता, पूर्व नेता से कोई सरोकार नहीं। यहां यह बात भी अपने आप में गजब है कि जांजगीर जिले की 6 विधानसभा सीटों में कांग्रेस, भाजपा और कांग्रेस ने बड़े ही सुंदरता से दो-दो सीट बांट लिए हैं। जिले के सबसे बड़े और कद्दावर नेता तो जिले में कभी कभार ही दिखते हैं वह भी सरकारी कार्यक्रमों में ही, जबकि डॉ महंत के चाहने वालों की बात करें तो उन्हें सिर्फ उनके निजी समर्थक ही पसंद हैं, कांग्रेस संगठन या कांग्रेस की विचारधारा रखने वाले डॉ महंत से धीरे धीरे दूर होते जा रहें हैं, ऐसे में राजा सुरेंद्र बहादुर अपनी खोई हुई साख वापस बनाने में लगे दिख रहें हैं, भले ही स्वास्थ्य गत कारणों से राजा साहब घर से बाहर या जनता के बीच नहीं आ रहें हो लेकिन अपने जन्मदिन के अवसर पर अपने सभी विरोधी कहलाने वालों को भी निमंत्रण देकर बुलाए और खातिरदारी भी की। राजनीति के जानकारों का मानना है कि आईसीयू से तो भाजपा पूरी तरह से स्वस्थ होकर निकल जायेगी लेकिन वेंटिलेटर में पहुंच चुकी कांग्रेस संगठन का स्वस्थ होना अब काफी मुश्किल दिख रहा है। लोग यह भी कहने से जरा भी गुरेज नहीं कर रहें हैं कि बड़े नेता पार्टी की संजीवनी होते हैं लेकिन यहां बड़े नेता ने कांग्रेस का वध कर दिया है। अब लोगों की निगाहें एक बार फिर राजपरिवार की ओर ताकती नजर आ रही हैं।

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