जख्म ने बदली आदिवासी की पहचान, बर्बरता जाननी है तो एक कान वाले रमेश से मिलिए

रायपुर. ”सलवा जुडूम के हिंदी अर्थ को समझें तो इसका मायने होंगे ‘शांति का कारवां’, लेकिन इसका चरित्र नाम के अर्थ से बिल्कुल उल्टा था. बस्तर में हिंसक लोगों (नक्सलियों) के खिलाफ शुरू हुए सलवा जुडूम के हिंसा और बर्बरता के कई किस्से हैं.” बस्तर संभाग के बीजापुर जिले के बासागुड़ा के रहने वाले 55 वर्षीय राजेंद्र झाड़ी सलवा जुडूम को कुछ इस तरह ही याद करते हैं. सलवा जुडूम प्रभावितों में शामिल राजेंद्र कहते हैं कि जुडूम के लोगों द्वारा दिए जख्म के कई किस्से हैं, लेकिन जुडूम पर रोक के इतने साल बाद भी यदि बर्बरता का प्रमाण देखना है तो वापसी में एक कान वाले रमेश से मिलिएगा.

‘एक कान वाले रमेश से मिलिए’ बीजापुर के आवापल्ली से बासागुड़ा तक के सफर में सलवा जुडूम के प्रभावितों के बारे में पूछने पर अलग-अलग गांवों में दर्जनभर से ज्यादा लोगों ने हमसे यही कहा. रमेश की तलाश में हम आवापल्ली के पास दुगईगुड़ा गांव पहुंचे. गांव में मुख्य सड़क के किनारे ही आंचल किराना स्टोर है. यहां पूछने पर पता चला कि दुकान के सामने वाला घर ही रमेश का है, लेकिन फिलहाल वो घर में नहीं हैं. मछली पकड़ने के लिए तालाब गए हुए हैं. दुकानदार के कहने पर गांव का ही एक युवक रमेश को बुलाने के लिए रवाना हो गया. कुछ देर इंतजार के बाद रमेश हमारे सामने थे.

जख्म की कहानी, बर्बरता के निशान
42 वर्षीय रमेश का पूरा नाम रमेश इरपा है, लेकिन पूरे इलाके में एक कान वाले रमेश के नाम से ही उन्हें पहचाना जाता है. इसके पीछे की वजह बताते हुए रमेश कहते हैं, “ये सलवा जुडूम के शुरुआती यानी साल 2005 के बारिश के दिनों की बात है. नक्सलियों के खिलाफ आदिवासियों के आंदोलन की पहचान लिए सलवा जुडूम से मैं भी प्रभावित था. तब मैं और मेरे जैसे कई युवा जुडूम से जुड़ना चाहते थे. सलवा जुडूम हमारे गांव की ओर धीरे-धीरे बढ़ रहा था. चेरामंगी तक जुडूम के लोग पहुंच चुके थे. रात में वहां ठहरने के बाद अगली सुबह हमारे गांव में उनका आगमन था.”

रमेश कहते हैं, “सलवा जुडूम के हमारे गांव में स्वागत करने वालों की अगुआई मैं खुद हाथ में फूलों की माला लेकर कर रहा था. जुडूम हमारे गांव के नजदीक पहुंचा ही था कि नक्सलियों ने बम ब्लास्ट कर दिया. अफरा-तफरी मची, मैं भी भागने लगा. इसी दौरान जुडूम के लोगों ने मुझे पकड़ लिया. उन्हें लगा मैं नक्सली हूं. मैंने बताया कि मैं तो जुडूम के स्वागत के लिए ही खड़ा था तो उन्होंने कहा कि स्वागत के लिए खड़े थे तो भाग क्यों रहे थे. जुडूम के ही कुछ लोगों ने कहा कि इसने ही नक्सलियों को हमारे बारे में बताया होगा. मैंने बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन वे मानने के लिए तैयार ही नहीं थे. कुछ लोगों ने कहा कि इसे सजा मिलनी चाहिए. सजा के तौर पर जुडूम के लोगों ने मेरा बायां कान काट दिया. तब से मेरी पहचान रमेश इरपा से बदलकर एक कान वाला रमेश हो गया.”

सलवा जुडूम में क्यों बदल गया जनजागरण?
बस्तर में सलवा जुडूम के संस्थापक नेताओं में शामिल बीजापुर के कुटरू निवासी मधुकर राव कहते हैं, “सलवा जुडूम का औपचारिक ऐलान 4 जून 2005 को यहीं कुटरू से हुआ. बड़ी सभा में आसपास के 20 से ज्यादा गांवों के हजारों आदिवासी ग्रामीण शामिल हुए. इस सभा में तत्कालीन राज्यपाल, मुख्यमंत्री, गृहमंत्री, डीजीपी, कलेक्टर, एसपी समेत पक्ष विपक्ष के कई नेता पहुंचे. महेंद्र कर्मा सभा की अगुआई कर रहे थे. उन्होंने कहा कि नक्सलियों की हिंसा के खिलाफ ये शांतिपूर्ण आंदोलन है, लेकिन इसका नाम स्थानीय गोंडी भाषा में ही रखा जाए, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे समझ सकें. महेंद्र कर्मा ने ही इसका नाम सलवा जुडूम रखा.”

हरदम सुरक्षा के घेरे में रहने वाले मधुकर राव कहते हैं, “ज्यादातर लोग मानते हैं कि नक्सलियों के खिलाफ आदिवासियों के स्फूर्त आंदोलन की शुरुआत कुटरू से हुई थी, लेकिन इसकी पहली बैठक अप्रैल-मई 2005 में कुटरू नहीं बल्कि यहां से करीब 20 किलोमीटर दूर इंद्रावती नदी के किनारे बसे करकेली गांव में हुई थी. वहां के कुछ युवकों को नक्सली अपने साथ जबरदस्ती ले गए थे. उन्हें छुड़ाने के लिए गांव के मिच्चा हुंगा, वाचम एवड़ा व कुछ अन्य लोगों ने बैठक की और नक्सलियों के खिलाफ आवाज उठाई. बैठक के बाद एक दिन जब नक्सली गांव में आए तो उनको लोगों ने पकड़ लिया. समझाया. इसके बाद नक्सलियों ने वाचम एवड़ा समेत 7 लोगों की हत्या कर दी. तुमला गांव में लेखराम नाम के युवक की भी हत्या कर दी गई. इसके बाद लोगों का आक्रोश नक्सलियों के खिलाफ बढ़ा और छोटी व बड़ी करकेली में फिर से लोगों ने बैठक की.”

मधुकर राव बताते हैं, “इसी बीच नैमेड़ से कुटरू आने के रास्ते में नक्सलियों ने पुलिस वाहन को आईईडी ब्लास्ट कर उड़ा दिया. इस मामले की जांच करते पुलिस वाले कुटरू गांव से 4 युवकों को नक्सलियों का सहयोगी बताकर उठा ले गए. हमने पुलिस वालों को बताया कि वे नक्सली नहीं हैं, लेकिन वे नहीं माने. ग्रामीण दोनों ओर से परेशान थे. इसी बीच एक दिन नक्सल संगठन के कुछ सदस्य गांव आए. मैंने कुछ अन्य लोगों के सहयोग से उन्हें पकड़ लिया और पुलिस के पास ले गए. हमने बताया कि आप जिन्हें ढूंढ रहे हैं, वो ये लोग हैं, हमारे बच्चों को छोड़ दीजिए. इसके बाद हम भी नक्सलियों के निशाने पर आ गए. हम पर हमले शुरू हो गए. करकेली में नक्सलियों के खिलाफ बैठक की जानकारी हमें मिल गई थी. आस-पास के 4-5 गांव वालों ने तय किया कि अब नक्सलियों के खिलाफ हम लोगों को जागरूक करेंगे और युवाओं को संगठन में जाने से रोकेंगे. इसके तहत हमने गांवों में बैठकें शुरू कीं और उसे नक्सलियों के खिलाफ जन जागरण नाम दिया, जिसे बाद में बदलकर सलवा जुडूम कर दिया गया.”

क्यों बदनाम हुआ सलवा जुडूम?
बस्तर में हिंसा फैला रहे नक्सलियों के खिलाफ आदिवासियों के शांति कारवां को तत्कालीन सरकार और विपक्ष दोनों का साथ मिला. सरकार ने बिना प्रशिक्षण नक्सलियों से लड़ने के लिए स्थानीय आदिवासियों को एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) बनाया और हथियार थमा दिए. तब नेता प्रतिपक्ष व कांग्रेस का राष्ट्रीय चेहरा महेंद्र कर्मा ने सलवा जुडूम का नेतृत्व किया. साल 2005 से शुरू हुए सलवा जुडूम पर 5 जुलाई 2011 को देश की सर्वोच्च न्यायालय ने पूरी तरह से रोक लगा दी.

बीजापुर के कोर्सेगुड़ा गांव के सरपंच भीमा कहते हैं कि फरवरी 2006 में हमारे गांव के 125 से ज्यादा घर जला दिए गए. क्योंकि हमने सलवा जुडूम के शिविर में जाने से इनकार कर दिया था. सिर्फ कोर्सेगुड़ा ही नहीं लिंगागिरी, मनकेली व आसपास के अन्य गांवों में भी आगजनी की गई. सलवा जुडूम का हिस्सा बनते थे तो नक्सली हमें अपना शिकार बनाते थे. उस दौरान हम दो पाटों में पिस रहे थे.

कैंप में हत्याएं और हालात
सरकारी आंकड़ों के अनुसार अविभाजित दंतेवाड़ा (अब दंतेवाड़ा, बीजापुर व सुकमा) जिले के 644 गांव खाली कराए गए थे. इन गांवों के 56 हजार से ज्यादा लोगों को विस्थापित कर सलवा जुडूम के राहत शिविरों में रखा गया. बीजापुर के माटवाड़ा राहत शिविर में रहने वाले 3 आदिवासियों की लाशें मार्च 2007 में कैंप से कुछ दूर मिली थीं. शव से उनकी आंखें निकाल ली गईं थीं और सिर पत्थल से कुचल दिया गया था. पुलिस जांच में सलवा जुडूम से जुड़े लोगों ने कहा कि नक्सलियों ने इस वारदात को अंजाम दिया है, लेकिन सामाजिक व मानवाधिकार के कार्यकर्ताओं के दबाव में मामला हाई कोर्ट तक गया.

माटवाड़ा की घटना को करीब से कवर करने वाले छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल बताते हैं कि मामले में लंबी जांच के बाद हाई कोर्ट ने एक पुलिस एएसआई और 3 एसपीओ को ही हत्या का दोषी पाया. उनके खिलाफ कार्रवाई की गई और पीड़ित परिवार वालों को मुआवजा भी मिला. इस घटना ने सामाजिक कार्यकर्ताओं के उन आरोपों को बल दिया, जिसमें वे कहते थे कि जुडूम के प्रभावशाली लोग अपने निजी हित के लिए आदिवासियों की बलि चढ़ा रहे हैं. मटवाड़ा कोई पहली घटना नहीं है, इसके पहले और बाद में भी सलवा जुडूम के लोगों पर नक्सली होने का आरोप लगाकर मारपीट, महिला से दुष्कर्म, वनोपज की लूट, शिविरों में राशन सप्लाई की ठेकेदारी और भ्रष्टाचार के आरोप लगे. इन्हीं घटनाओं के चलते जुडूम बदनाम होता गया.

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