हूकूमतों की कब्रगाह-बना अफगानिस्तान!

बिलासपुर–:आशीष पाण्डेय की कलम से 15 अगस्त भारतीय स्वतंत्रता दिवस के दिन अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में आतंकवादी संगठन तालिबान काबिज हो गया। अफगानिस्तान का इतिहास रक्त रंजिस रहा है। उसे कई हूकूमतों ने समय समय पर कब्जाने की नाकाम कोशिश की है। अफगानिस्तान की आबादी में पश्तून, उज्बेक, ताजिक, हजारा आदि समुदाय हैं। यह हिन्दूकुश पर्वत से घिरा हुआ है। बहुलता पश्तून आबादी की है जो लगभग 42 प्रतिशत हैं। आतंकवादी संगठन तालिबान में भी मुख्यतः पश्तून ही हैं। आधुनिक इतिहास की बात करें तो अफगानिस्तान ब्रिटेन और सोवियत संघ के बीच विवाद का मुख्य कारण रहा। अफगानिस्तान व्यापार के लिहाज से यूरोप को जोड़ने वाला मुख्य मार्ग रहा है। 1919 में तीसरे एंग्लों अफगान युद्ध में अंग्रेजों की हार हुई तथा अफगानिस्तान में राजशाही की स्थापना हुई। 1980 में सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर आक्रमण किये जाने के पश्चात अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से मुजाहिदीन या तालिबान को सोवियत संघ के खिलाफ इस्तेमाल करते हुए हथियार और आर्थिक मदद की। अमेरिका का मकसद सोवियत संघ को इस क्षेत्र से बाहर रखना था, इस काम में पाकिस्तान ने भी इसका पूरा साथ दिया। खून खराबे और अपने हजारों सैनिकों को गंवाने के बाद सोवियत संघ ने अपनी सेना अफगानिस्तान से 1989 में वापस बुला ली। अफगानिस्तान से सोवियत संघ की वापसी के साथ ही मुजाहिदीनों के बीच सत्ता का संघर्ष तेज हो गया। राजधानी काबुल समेत 90 प्रतिशत अफगानिस्तान में 1996 तक पाकिस्तान की मदद से तालिबान काबिज हो गया। सिर्फ उत्तरी अफगानिस्तान अहमद शाह मसूद के नियंत्रण में रहा। जिसे उत्तरी गठबंधन या आज नेशनल रेजिस्टेंन्स फोर्स कहा जाता है।
अमेरिका द्वारा पैदा किये गये आतंकवादी संगठन तालिबान और अल-कायदा के द्वारा ही 11 सितंबर 2001 में अमेरिका में अब तक का सबसे भीषण आतंकवादी हमला किया। जिसमें 3000 से ज्यादा लोगों की जान चली गई तथा हजारों लोग घायल हुए। अल-कायदा का मुखिया जिसे अमेरिका ने अपने फायदे के लिए सोवियत संघ के खिलाफ इस्तेमाल किया। वह अमेरिका के लिए भस्मासुर बन गया। उसने ही अमेरिका को अब तक का सबसे बड़ा घाव दे दिया। इस हमले के बाद वैश्विक परिदृश्य पूरी तरह बदल गया।
अमेरिका ने 9/11 हमले के बाद ओसामा की तलाश में अफगानिस्तान में वर्षों तक युद्ध लड़ा। लगभग बीस वर्षों तक हजारों सैनिकों को गंवानें, अरबों डालर के हथियार और पानी की तरह पैसा बहाने के बाद पराजित अमेरिका चुपचाप अफगानिस्तान से निकल गया। तथा तालिबान को शासन करने की मौन सहमति दे दी। साढ़े तीन लाख हथियारों से लैस अफगानी सेना सत्तर हजार तालिबानियों (जो केवल मामूली हथियार लिये हुए थे) के सामने घुटने टेक दें यह अमेरिका के बिना संभव नहीं है। अमेरिका ने कई युद्ध लड़े चाहे वह वियतनाम, ईराक, सीरिया व अफगानिस्तान हो, वह हर जगह विफल ही रहा है। उसे हासिल कुछ भी नहीं हुआ। अमेरिका विश्व में दबदबा बनाये रखने के लिए अपने हथियारों का इस्तेमाल करता है। अमेरिका आज दुनिया का सबसे बड़ा हथियार विक्रेता है। उसका सालाना व्यापार 197 अरब डॉलर का है। किसी भी स्थिर क्षेत्र को अस्थिर करने से ही हथियारों का व्यापार होगा। यह कला अमेरिका को बखूबी आती है। जिसमें आजतक वह सफल रहा है। दो बंदरों की लड़ाई में फायदा बिल्ली का ही होता है। आतंकवादी संगठनों को हथियार उपलब्ध कराना फिर उनसे ही आतंकवाद के नाम पर युद्ध लड़ना और विरोधी संगठनों को भी हथियार उपलब्ध कराना अमेरिकी कला है। युद्ध कोई भी लड़े हथियार अमेरिकी ही हों।

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