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500 वर्षों से इस गांव में किसी ने नहीं किया मांस, सिगरेट-शराब का सेवन

सहारनपुर। पिछले महीने जनपद सहारनपुर के ऐतिहासिक गांव मिरगपुर का नाम इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज हुआ है। इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड की तरफ से गांव को ‘पवित्र गांव’ का खिताब दिया गया है।

पाश्चात्य संस्कृति से जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश पूरी तरह से सराबोर है वहीं सहारनपुर का ऐतिहासिक एवं प्रसिद्ध काली नदी के तट पर बसा मिरगपुर हिंदुस्तान के नक्शे पर एक ऐसा अनूठा गांव है जो अपने विशेष रहन सहन और सात्विक खान पान के लिए देशभर में विख्यात है।

गांव के बाहर काली नदी के किनारे ऊंचे टीले पर बाबा फकीरा दास की समाधि बनी हुई है।यहां हर साल उनकी याद में महाशिवरात्रि से ठीक पहले भव्य मेला लगता है।मेले में स्थानीय लोगों के साथ-साथ राजस्थान, पंजाब, उत्तरांचल एवं हरियाणा आदि प्रदेशों से हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं।

लगभग 10 हजार की आबादी का यह विशिष्ठ गांव खुद में देश की संस्कृति के साथ.साथ अनेकों खूबियां भी संजोए हुए है। गांव की नब्बे फीसद आबादी हिंदू गुर्जरों की है।यहां के निवासियों की बड़ी खूबी यह है कि वे सभी तरह के नशे एवं तामसिक खानपान से मुक्त हैं।कोई भी व्यक्ति भोजन में मांस, प्याज, लहसुन तक का प्रयोग नहीं करता है।वे शराब, पान, बीड़ी, सिगरेट, सिगार, हुक्का, गुटका, गांजा, अफीम एवं भांग आदि मादक पदार्थों का भी कतई सेवन नहीं करते है।

शासकीय मानकों के अनुसार मिरगपुर विकास खंड़ देवबंद का आदर्श गांव है। सामाजिक तौर पर यह गांव धूम्रपान रहित गांव की श्रेणी में शुमार होने के कारण समाज में एक दुर्लभ मिसाल बना है।
गुर्जर बहुल इस गांव की दूसरी जाति भी खान.पान और रहन.सहन में गुर्जरों का ही अनुसरण करती है।ये सभी व्यसन पूरे गांव में पूरी तरह से वर्जित है।गांव को मद्यरहित बनाने के पीछे पूरे गांव के गुरू माने जाने वाले बाबा फकीरा दास की सीख आज भी काम कर रही है।आज से करीब पांच सौ साल पहले मुगल सम्राट नसरूद्दीन मौहम्मद जहांगीर जो अकबर के बडे बेटे और उत्तराधिकारी थे के शासनकाल में बाबा ने अपने शिष्यों को जेल से इसी शर्त पर रिहा कराया था कि वे कभी भी धूम्रपान और मांसाहार का सेवन नहीं करेंगे तब पूरे गांव ने श्रद्धापूर्वक बाबा की शर्त को स्वीकार करते हुए जो प्रतिज्ञा ली थी जिसका गांववासी आज भी पालन कर रहे है।

सात्विक खान.पान के कारण ही यहां के लोगों का व्यक्तित्व निराला है। लंबे.छरछरे और गौरे रंग की नस्ल के मिरगपुरवासी स्वाभिमानी है। मिरगपुरवासियों का इलाके में दबदबा है।मिरगपुर गांव में दर्जन भर दुकानों में से किसी पर भी बीड़ी.सिगरेट नही मिलती है।गांव वालों के मुताबिक मुगल सम्राट जहांगीर के राज 1610 मे इस अनूठी परंपरा की नींव पडी थी जब बाबा फकीरादास यहां आकर रूके।गांव के लोगो के मुताबिक पूर्व केंद्रीय मंत्री दिवंगत राजेश पायलट का इस गांव से बहुत लगाव था।उन्होंने गांव में पुल बनवाकर लोगों को बड़ी राहत प्रदान की थी।

पायलट की स्मृति में गांव में प्रवेश द्वार पर उनकी प्रतिमा लगाई गई है।राजेश पायलट के प्रयासों और प्रेरणा से गांव की काली नदी पर पुल बनाए जाने का काम हुआ था। जिससे गांव को बहुत बडा फायदा हुआ और उसके बाद गांव मुख्य सडकों से जुड गया।गांव के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेती.बाडी है।गांव में गन्नें की फसल खूब होती है।खेती और ग्रामीणों की मेहनत एवं सात्विकता के बूते ही गांव में समृद्धि और खुशहाली दिखती है।गांव मिरगपुर में गुुर्जरों की तादाद भले ही पांच.छह हजार के करीब हो लेकिन गांव और उसके लोगों की हमेशा से यह खूबी रही है कि राजस्थान और हरियाणा के गुर्जर भी इस गांव से गहरा लगाव रखते है।

पूर्व प्रधान चौधरी सफूरा सिंह के मुताबिक जहांगीर के शासनकाल में गांव के लोग जब मुस्लिम आतताइयों के अत्याचार से बुरी तरह से त्रस्त थे तब उनके गांव में पंजाब के संगरूर जिले के घरांचो इलाके से घूमते.घामते सिद्ध पुरूष बाबा फकीरा दास पहुंचे जिनका गांव में एक पखवाड़े का प्रवास रहा।उन्होंने अपने चमत्कारिक व्यक्तित्व से ग्रामीणों को अभिभूत कर दिया और उन्हें उपदेश दिया कि यदि इस गांव के लोग नशा और दूसरे तामसिक व्यंजनों का पूरी तरह से परित्याग करते हैं तो यह गांव सुखी और समृद्धशाली बन जाएगा।यहां के लोग इस परंपरा का पालन 17 वीं शताब्दी से लगातार करते चले आ रहे है।गांव के लोग बताते है कि जो लोग इस परंपरा का उल्लंघन करते है उन्हें गुरू जी खुद ही सजा देते है।वह कहते है कि परंपरा का पालन न करने वाले कई लोग अस्वाभाविक मौत का शिकार हुए।गुर्जर अपनी बिरादरी में बड़ी सख्ती के साथ इस निषेध को लागू करते है।

गांव के लगभग 400 लोग सरकारी नौकरी पर कार्यरत हैं।कुछ लोगों ने विदेश में भी पढ़ाई की है।गांव की युवा पीढ़ी पूरी तरह से शिक्षित है।जो बुजुर्ग लोग हैं उनमें भी लगभग 50% लोग शिक्षित हैं।गांव का कोई भी व्यक्ति चाहे गांव में हो या गांव से बाहर अपनी इस परंपरा को निभाता चला आ रहा है।

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