
इतना आसान नहीं होगा एक देश एक चुनाव
योगेश कबूलपुरिया, खरसिया
लोकतंत्र का आधार स्तंभ है मतदान का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। चुनाव लोकतंत्र का महापर्व है। चुनाव पर रोक या देरी लोकतंत्र का और जनता का अपमान है। एक देश एक टैक्स के बाद एक नया शिगूफा आया है एक देश एक चुनाव। जो संसदीय लोकतंत्र को नहीं समझते वे ही इसका समर्थन कर सकते हैं। संसदीय लोकतंत्र में सभी चुनाव एक साथ होना लगभग असंभव है।
देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। 26 जनवरी 1950 को देश के कर्णधारों ने नया संविधान लागू किया। देश गणतंत्र बन गया। वयस्क मताधिकार का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया। 1952, 57, 62 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ संपन्न हुए थे। बाद में धीरे-धीरे कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे। इसके कई कारण थे जैसे राज्यों में धारा 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू करना, किसी राज्य में विषम परिस्थितियों के कारण चुनाव कराना संभव नहीं होता जैसा कि पिछले कई वर्षों से जम्मू और कश्मीर में हालात थे।
विधानसभा चुनाव के बाद किसी एक दल को बहुमत नहीं मिलना और मंत्रिपरिषद का गठन नहीं हो पाना। राज्य विधानसभाओं को कई बार थोक में जनमत का हवाला देकर बर्खास्त किया गया है। कई बार किसी राज्य सरकार को अपदस्थ करने के लिए जबरन राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया है। कई बार खरीद फरोख्त कर सरकार बनाई गई है।
दल बदल कानून बनाया गया पर उसका भी तोड़ निकाल लिया बदल जाता है। एक देश एक चुनाव को लागू करने के लिए दल कानून को सख्त बनाया जा सकता है। इसके अंतर्गत दल छोड़ने पर सदस्यता छोड़ने का कानून बनाया जा सकता है पर यह अलोकतांत्रिक होगा और इससे राजनीतिक दलों की तानाशाही में इजाफा होगा। साथ ही निर्दलीय सदस्यों पर यह कानून बेअसर होगा।
देश के संविधान में विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों का स्पष्ट विवरण है। इनमें शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा है। एक देश एक चुनाव के लिए संविधान के मूल ढांचे को बदलना होगा और इसके लिए दोनों सदनों लोकसभा राज्यसभा में दो तिहाई बहुमत की जरूरत होगी। साथ ही देश की आधी विधानसभाओं की सहमति लेनी होगी। यह सब संभव नहीं है और यह एक जुमला साबित होगा। इसे लागू करने के लिए देशभर की सभी विधानसभाओं को भंग करना होगा।
6 महीने या 1 साल पहले चुनाव जीतने वाले दल भला क्यों इसका समर्थन करेंगे। किसी भी विधानसभा को उसकी या उस राज्य की जनता की सहमति के बिना भंग करना अलोकतांत्रिक व संविधान विरोधी कदम होगा। संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद लोकसभा और देश की जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। जब तक उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त है अपने पद पर रह सकता है। यही बात मुख्यमंत्री और मंत्रीपरिषद के बारे में भी कही जा सकती है, अतः उनका कायर्काल उसके सदस्यों या जनता की इच्छा पर निर्भर होगा। उसे किसी कानून के दायरे में नहीं लाया जा सकता।
फिर भी कल्पना कीजिए की जिद के चलते खींचतान करके खोटा सिक्का चला भी दिया जाए तो उसका परिणाम क्या होगा। मान लीजिए 2029 में पूरे देश में आम चुनाव के साथ सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव भी संपन्न कराना है। इसके लिए पांच राज्य राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम को छोड़कर बाकी बचे 23 राज्यों के विधानसभा को समय से पहले भंग करना होगा।
इन राज्यों में कई राज्य ऐसे हैं जिसकी जनता ने एक साल के भीतर ही स्पष्ट जनादेश दिया है। क्या यह कदम अलोकतांत्रिक नहीं होगा? यदि 2029 में केंद्र और सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव सम्पन्न होते हैं तो हो सकता है कि केंद्र में और कई राज्यों में किसी एक दल को या किसी एक गठबंधन को पूर्ण बहुमत न मिले और सरकार की स्थापना संभव न हो उस स्थिति में राष्ट्रपति शासन लगाना होगा। ऐसा होना बिल्कुल संभव है, हम अटल जी की 13 दिन की और 13 महीने की सरकार देख चुके हैं।
किसी राज्य में यदि सरकार की स्थापना नहीं हो पा रही है तो वहां 5 साल के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा। आप यकीन मानिए 2029 में सभी चुनाव एक साथ संपन्न होने के बाद दो या तीन साल के भीतर ही कई राज्यों के चुनाव कराने पड़ेंगे। राम मनोहर लोहिया जी ने कहा है जिंदा कौमें पांच साल तक है। इंतजार नहीं करती। इस बात का काफी हो हल्ला मचाया जा रहा है कि अलग-अलग चुनाव कराने में खर्च अधिक होता 2014 के चुनाव का सरकारी खर्च 4000 करोड़ से कम है। प्रतिवर्ष 18 लाख करोड़ जी एस टी वसूलने वाले देश में ऐसी बातें शोभा नहीं देती। बैंकों के एन पी ए की राशि 5.42 लाख करोड़ रुपए है।
तीन संशोधन विधेयक लाने की तैयारी में मोदी सरकार :- योगेश कबूलपुरिया
केंद्रीय मंत्रीमंडल ने कुछ महीने पहले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व वाली उच्च स्तरीय कमिटी कि वन नेशन-वन इलेक्शन सिफारिशों को मंजूरी दी। सरकार अब अपनी इस योजना को आगे बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन करने की तैयारी कर रही है। सरकार वन नेशन-वन इलेक्शन को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन करने वाले दो विधेयकों समेत तीन विधेयकों को लाने की तैयारी में है। प्रस्तावित संविधान संशोधन विधेयकों में से एक स्थानीय निकायों के चुनावों को लोकसभा और विधानसभाओं के साथ संरेखित करने से संबंधित है। जिसके लिए कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों की सहमति की जरूरत होगी।
सूत्रों को ओर से कहा गया है कि, प्रस्तावित पहला संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने को लेकर होगा। उच्च स्तरीय समिति की सिफारिशों का हवाला देते हुए सूत्रों ने बताया कि प्रस्तावित विधेयक में अनुच्छेद 82ए में संशोधन करने की कोशिश की जाएगी। जिसमें नियत तिथि से संबंधित उप-खंड (1) जोड़ा जाएगा।
प्रस्तावित दूसरे संविधान संशोधन विधेयक को कम से कम 50 प्रतिशत राज्य विधानसभाओं के समर्थन की आवश्यकता होगी क्योंकि यह राज्य मामलों से संबंधित है। इस विधेयक के जरिए स्थानीय निकायों के चुनावों को लेकर मतदाता सूची तैयार की जाएगी। जिसके लिए चुनाव आयोग (ईसी) को राज्य चुनाव आयोगों (एसईसी) के साथ परामर्श करना होगा। जिसके बाद ईसी इन चुनावों को लेकर मतदाता सूची तैयार करेगा।
तीसरा विधेयक एक साधारण विधेयक होगा। जो विधानसभा वाले केंद्र शासित प्रदेशों जैसे- पुडुचेरी, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर से संबंधित होगा। जो तीन कानूनों के प्रावधानों में संशोधन करेगा। ताकि इन सदनों की शर्तों को अन्य विधानसभाओं और लोकसभा के साथ संरेखित किया जा सके। जिसे पहले संविधान संशोधन विधेयक में प्रस्तावित किया गया है।