अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस : भरे-पूरे परिवार ने अपने ‘देवता’ को दिया एकांतवास, बेबसी की जिंदगी जी रहे बुजुर्ग

रायपुर. पांव सूखे हुए पत्तों पर अदब से रखना, धूप में मांगी थी तुमने पनाह इनसे कभी। शायर की ये चंद पंक्तियां परिवार के उन बुजुर्गों की तकलीफ और हालत को बयां करती हैं, जिनके जीवन का आखिरी ठिकाना वृद्धाश्रम बना हुआ है। देवतातुल्य वरिष्ठजनों को सम्मान देने वाले परिवारों की संख्या कम नहीं है, पर ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने काबिल बनाने वाले माता-पिता को भुला दिया है। उन्हें घर पर जगह तक नहीं दी और उनका आखिरी मुकाम वृद्धाश्रम का एकांतवास है। आज अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस पर ऐसे ही वरिष्ठ नागरिकों ने हरिभूमि के साथ अपना दर्द बयां किया। आठ बच्चे, फिर भी बुजुर्ग मां अनाथ हर बुजुर्ग को अपने बेटे और बेटी पर खुद से ज्यादा विश्वास होता है। यह विश्वास टूटता है, व्यक्ति भी भीतर से टूट जाता है। वृद्धाश्रम में पन्ना बाई एक वर्ष से अधिक समय से रह रही हैं। चार बेटे और चार बेटियां होने के बावजूद बुजुर्ग मां को किसी ने अपने घर में जगह नहीं दी। सभी बुजुर्ग मां की सेवा करने से पीछे हट गए और वृद्धाश्रम छोड़ आए। पन्ना बाई को अपनों का इंतजार है। उनका कहना है, मां होने का पूरा फर्ज निभाया। सभी को एक समान प्यार दिया। किसी के साथ भेदभाव नहीं किया। आज आठ संतानों ने मुझे स्वीकारने से इनकार कर दिया। यह दुख घाव के तरह मेरे मन पर मरने तक साथ रहेगा। बुढ़ापे में परिवार का साथ और प्यार चाहिए था, लेकिन समय ने अनाथ बना दिया। बेटियों ने परिवार बड़ा होने से अपने घर से दूर कर दिया। बेटों ने अपने परिवार को पहले महत्व देना सही समझा। किसी ने भी बुजुर्ग मां के दुख-सुख को पहचानने का प्रयास नहीं किया है। उनका कहना है, परिवार में लौट जाने की इच्छा है, लेकिन अब शायद मुझे वे पहले के तरह प्यार नहीं देंगे। किसी के मजबूरी बनने से अच्छा वृद्धाश्रम में अपना जीवन बिताना पसंद करूंगी।

परिवार का सुख रह गया अधूरा हर माता-पिता का इच्छा होती है, बुढ़ापे में उन्हें परिवार का प्यार और साथ मिले, लेकिन जीवन में अचानक आया बदलाव घाव बनकर रह जाता है। धरम लाल वन विभाग में अधिकारी थे। अपने परिवार की अच्छी परवरिश की। सेवानिवृत्ति के बाद पैसों के लिए बच्चे रोज झगड़ते थे। बात यहां तक पहुंच गई कि वे मारपीट भी करने लगे। उनकी हालत को देख उनके एक मित्र का दिल पसीज गया। उन्होंने आश्रम में प्रवेश दिलवाया। आज पांच वर्षों से वे चितवन वृद्धाश्रम में रह रहे हैं। उनका कहना है, जब बच्चे छोटे थे, उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए संघर्ष किया, ताकि उनका भविष्य अच्छा हो। आज उनका भविष्य उज्ज्वल हो चुका है, लेकिन अपने पिता काे वर्तमान बेसहारा छोड़ दिया है। धरम के दो बेटों में से एक शिक्षक है। शिक्षक बनने के बाद भी जीवन में पिता के होने का महत्व समझ नहीं आया। पारिवारिक जीवन से छूटकर धरम ने अब वृद्धाश्रम में नई दुनिया बना ली है। घर लौटने की चाहत अब उनके भीतर पहले जैसी नहीं रही। उनका कहना है, जो दुख मुझे मिला है, उस जख्म भरने में लंबा समय लगेगा, लेकिन अब इतना लंबा समय मेरे पास नहीं। घर फिर लौट जाऊं ताे परिवार में मेरी उपस्थिति से फिर एक परिवार टूट जाएगा। यह मैं नहीं चाहता, इसलिए अब इस वर्तमान कोे मैंने स्वीकार कर लिया है।

वर्षों से अपनों के इंतजार में बुजुर्ग शहर में पांच से अधिक वृद्धाश्रम हैं, जिसमें प्रत्येक आश्रम में दर्जनभर से अधिक बुजुर्ग निवासरत हैं। हरिभूमि ने वृद्धाश्रम के संचालकों से बुजुर्गों के घर लौटने की जानकारी ली। 10 प्रतिशत लोग ही वृद्धाश्रम से अपने बुजुर्गों को घर ले गए। 90 प्रतिशत लोगों ने बुजुर्गों को वृद्धाश्रम छोड़ने के बाद मिलना तक उचित नहीं समझा। चितवन वृद्धाश्रम के मैनेजर प्रशांत पांडेय का कहना है, वृद्धाश्रम में घर के बाहर निकाले गए 6 से 7 बुजुर्गों को यहां रखा है। कुछ बुजुर्गों ने अंतिम सांसें भी वृद्धाश्रम में ली हैं। आश्रम आने के बाद बुजुर्गों के परिजन उनका हालचाल पूछने तक नहीं आते। कई बुजुर्ग अपनों के इंतजार में यहां अपने प्राण त्याग देते हैं।

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