
औरत के हिस्से आई जमीन खानदानी कंगन की तरह….पढ़िए पूरी खबर
हंगामाखेज खबरों के ढेर में हाईकोर्ट का एक सादा-सा फैसला कई परतों के नीचे दबकर रह गया। मामला मध्यप्रदेश का है, जिसमें अदालत की जबलपुर बेंच ने शादीशुदा बेटियाें को भी अनुकंपा नियुक्ति का हक दिया। सुनने में बड़ा ही रूखा और उबाऊ लगता ये फैसला आने वाले वक्त में नजीर साबित हो सकता है। किस तरह? ये समझने से पहले एक बार केस के बारे में जानते हैं।
याचिकाकर्ता महिला ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी, जो उसकी दिवंगत मां की नौकरी के बारे में थी। महिला की मां सतना पुलिस में ASI के पद पर थी। कुछ सालों पहले ड्यूटी पर जाते हुए ही एक हादसे में उनकी मौत हो गई। इसके बाद महिला ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन किया, लेकिन पुलिस विभाग ने आवेदन रिजेक्ट कर दिया। उनका तर्क था कि शादीशुदा बेटी को अनुकंपा नियुक्ति की न तो जरूरत है और न ही नियम। इस पर महिला ने कोर्ट में याचिका दायर कर दी।
संविधान में शामिल आर्टिकल- 14 के समानता के अधिकार के हवाले से महिला के वकील ने दलील दी कि बेटी चाहे अविवाहित हो या शादीशुदा, अनुकंपा नौकरी में उससे भेदभाव नहीं किया जा सकता। इससे पहले ये नियुक्ति केवल लड़कों तक सिमटी हुई थी, और इससे उनकी वैवाहिक स्थिति का भी कोई ताल्लुक नहीं था। अब अदालत के नए फैसले के बाद दायरा थोड़ा खुला है, लेकिन स्थिति खास नहीं बदली। अब भी बात अगर यहां अटक जाए कि अनुकंपा नियुक्ति के तहत नौकरी बेटे या बेटी में से किसे दी जाए, तो बगैर एक बार रुके वो बेटे के पाले में जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे जमीन, बैंक बैलेंस या फिर बाकी तमाम दौलत।
जिस आर्टिकल- 14 के हवाले से महिला ने ये जंग जीती, उसके मुताबिक देश के किसी भी नागरिक से धर्म, मूल, वंश, जाति, जन्मस्थान या फिर लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। हालांकि गैर-भेदभाव की ये बात संविधान की उस मूल प्रति तक ही सीमित है, जो सख्त सुरक्षा के बीच हीलियम-भरे चैंबर में सहेजकर रखी हुई है। जैसे ही संविधान नाम की भूलभुलैया से बाहर आते हैं, असल दुनिया शुरू हो जाती है, जहां फर्क ही फर्क हैं। औरत-मर्द में फर्क हो रहा है और हर स्तर पर है। मॉन्स्टर सैलरी इंडेक्स (MSI) का साल 2019 का डाटा बताता है कि समान नौकरी में महिलाएं, अपने सहकर्मी पुरुषों से 19% कम तनख्वाह पाती हैं। IT इंडस्ट्री में ये फर्क और चौड़ा है।
चलिए, दफ्तर का फर्क छोड़कर घर लौटते हैं, लेकिन यहां तो भेदभाव संकरी नदी से सीधे उफनता समंदर बन जाता है। बीवी खाना पका रही है। साथ-साथ जूठे बर्तन भी सकेलती जा रही है। बाजू में मुन्नी-मुन्ना खेल रहे हैं। कुंद-जहनियत के बाद भी उनका होमवर्क कराना और भूख से कुनमुनाने पर मीठी झिड़की लगा इंतजार को कहना भी बीवी के जिम्मे है। दफ्तर से लौट थके मियां आराम फरमा रहे हैं। तिपाई पर चाय की खाली प्याली और नाश्ते की अधखाई तश्तरी पड़ी है।
रसोई में लौटें तो बीवी खाना पकाते हुए दोबारा सामान जमा रही है। डब्बों को तरतीबवार रखा जाता है। तकरीबन सारे काम हो चुके। खाना पककर तैयार है। बच्चे खिलाकर सुलाए जा चुके। लेकिन, थोड़ा आटा अब भी तश्तरी से ढंका रखा है। वजह! मियां जी की थकान उतरे तो फटाफट गर्म रोटियां तवे से उतारकर परोसनी है। उन्हें खिलाकर आप खाने से फारिग होती हैं तो बीवी साहिबा कल के कपड़ों और बच्चों के टिफिन की उधेड़बुन में लग जाती हैं। और ऐसा हो भी क्यों न! घर बैठी को भला काम ही क्या होता है। ऐसे में जरा हाथ-पैर भी न हिलाए तो दवाखाने के चक्कर लगाने पड़ जाएं।
बावर्चीखाने की किचकिच से निकलकर झांकते हैं अपराध की दुनिया में। यहां औरत का शरीर हल्दीघाटी बना हुआ है, जहां पुरुष आपस में लड़ते हुए औरत को रौंद रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के साल 2020 के अंतिम आंकड़ों के मुताबिक, रोज औसतन 88 औरतों ने बलात्कार की शिकायत दर्ज कराई। ये केवल रेप के रिपोर्टेड आंकड़े हैं। असल मामले इससे कई गुना ज्यादा होंगे, ऐसा खुद NCRB का मानना है। हिंसा के बाकी सारे मामलों की तफसील फिर कभी।
अब बात करते हैं जमीन के टुकड़े पर अधिकार की। एग्रीकल्चरल सेंसस का डेटा बताता है कि देश की लगभग 87.3% महिलाएं घर चलाने के लिए खेती-किसानी करती हैं, लेकिन जिस फसल के लिए वे हाड़गलाऊ मेहनत करती हैं, वो उनकी नहीं, बल्कि किसी पुरुष मालिक की होती है। फिर चाहे वो गांव का कोई पंच हो या फिर अपना ही पति। केवल 10.34% औरतों के पास अपनी जमीन है। ये जमीन भी उनके लिए घी की उस बोतल जैसी होती है, जो सीलबंद हो।