
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर मंडल और कमंडल की खूब बात हो रही है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने चुनाव को 80 बनाम 20 (कथित तौर पर हिंदू बनाम मुस्लिम) की लड़ाई बताया तो समाजवादी पार्टी के कैंप में एंट्री मारते हुए स्वामी प्रसाद मौर्या ने 85 बनाम 15 (कथित तौर पर पिछड़ों बनाम अगड़ों) मुकाबले की बात कही। उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में पिछले तीन दशकों से मंडल-कमंडल को अलग-अलग तरीकों से परिभाषित किया गया है।
दूसरी तरफ बीजेपी हमेशा दावा करती रही है कि सपा जैसी मंडल आधारित पार्टियां ने समाजिक उन्नति के नाम पर केवल अपनी जातियों (यूपी बिहार में मुख्यतौर पर यादव) की मदद की है। पार्टी का कहना है कि केवल बीजेपी ही सत्ता में आने के बाद सही विकास, कल्याण और उत्थान के लिए काम करती है। हालांकि, इन तमाम दावों के बीच सच्चाई यह है कि पार्टियां उम्मीदवारों के चयन में जाति के साथ ही ‘धनबल’ का विशेष ध्यान रखती हैं। अमीरों को ही उम्मीदवारी मिलती है और वही जीतते भी हैं।
चुनावी गतिविधियों पर नजर रखने वाली संस्था असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2017 में उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 1.9 करोड़ रुपए थी। जो उम्मीदवार विधायक चुने गए उनकी औसत संपत्ति 5.9 करोड़ रुपए थी। एडीआर ने यह डेटा उम्मीदवारों की ओर से दाखिल हलफनामे से जुटाया है।
एडीआर रिपोर्ट के मुताबिक, ”बड़े पार्टियों की बात करें तो बीजेपी के 312 विधायकों की औसत संपत्ति 5.07 करोड़ रुपए थी तो समाजवादी पार्टी के 46 विधायकों की औसत संपत्ति 5.84 करोड़ रुपए रही। बीएसपी के 19 विधायकों की औसत संपत्ति 17.84 करोड़ रुपए थी तो कांग्रेस के 7 विधायकों के पास औसतन 10.6 करोड़ रुपए की संपत्ति थी। ये डेटा बताता है कि सभी बड़ी पार्टियां बेहद अमीर उम्मीदवारों को ही टिकट देती हैं और वही जीतते हैं।
यह हाल तब है जब राज्य के निवासियों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। 2017-18 में राज्य में प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी महज 64,120 रुपए थी। राज्य की शीर्ष 10% आबादी की औसत संपत्ति ₹97.5 लाख थी।