बदहाल यातायात और शहरी समाज

रायगढ़।
पिछले हफ्ते भर से सडकें और यातायात प्रबन्धन को लेकर नागरिक, निगम और प्रशासन के बीच एक शीतयुद्ध सा जारी रहा। मुख्यरूप से व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने जिनकी दुकानें कोरोना काल मे तकरीबन बंद थी और एक लम्बे अरसे बाद खुली तो उनकी दुकानों को नो पार्किंग ज़ोन घोषित किये जाने से उन्हें असुविधा का सामना करना पड़ा। नो पार्किंग ज़ोन हो जाने से न तो वे दुकानों के सामने वे अपना वाहन रख सकते थे न उनके ग्राहक। इससे उन्हें और उनके ग्राहकों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। नतीजतन वे दुकानें बंद कर सड़क पर धरने मे बैठ गये और अपना विरोध जाहिर किया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि बेतरतीब यातायात रायगढ़ शहर के लिए एक नासूर बन चुका है बावजूद इसके आज तक इस स्थिति का कोई स्थायी समाधान नहीं निकल पाया है। बेशक प्रशासन की ओर से ऐसी पहल की गई थी लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा। निगम के जिम्मेदार पदों पर बैठे जनप्रतिनिधि भी इस मामले मे यथास्थिति बनाऐ रखने के पक्ष मे रहे जबकि पिछले तीस वर्षों मे औद्योगिकरण के चलते रायगढ़ अब सिटी मे परिवर्तित हो चुका है। इस दौरान शहर में वाहनों की संख्या में तेजी से ईजाफा हुआ है। सड़को पर दबाव लगभग दस गुना बढ़ चुका है लेकिन कुछेक सड़को को छोड़ दिया जाए तो शेष सड़कें रियासतकालीन सड़को की याद दिलाती हैं। इसी तरह बढ़ते हुए दुपहियों और चारपहियो की संख्या को देखते हुऐ शहर मे पार्किंग की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए थी जो केवल निगम की जिम्मेदारी होती है। जिसे प्रशासनिक सहयोग द्वारा पूरा किया जाना था। 
कलेक्टर साहब के निर्देश मे पूर्व आयुक्त पान्डेय साहब द्वारा पहल  भी की गई थी। रोड डिव्हाडर  लगवाए ताकि आने और जाने की दिशा निर्धारित हो सके लेकिन लोगों की नजरों को तो यह भी खटकने लगा। निर्बाध गति या अपनी एक्रोबेटिक चाल से चलने की पुरानी आदत मे यह रोड़ा सा लगने लगा। दरअसल रायगढ़ महानगरीय काया मे ढल तो गया लेकिन उसकी आत्मा और आचरण मे वही कस्बाई रायगढ़ बसा हुआ है। बायें चलते हुए अचानक दाहिने मुड़ जाना, गुटखा खाते हुए सड़को पर कहीं भी थूक देना या पाउच को कही भी फेंक देना। इस शहर के राहगीरों की फितरत मे शुमार हो चुका है। यह नागरिक चरित्र है। इसे बदलने मे काफी मशक्कत लगेगी। सारा दारोमदार नागरिकों पर टिका है। जनप्रतिनिधि या प्रशासन उन्हें समझाने में फिलहाल तो नाकाम ही रहे हैं। कोई ठोस हल कभी निकला ही नहीं।
यहां यह बताना होगा कि धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में रायगढ़ की अपनी एक अलग पहचान है जिसकी ख्याति छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश मे है ऐसे शहर मे यदि इस तरह की बदतरीन यातायात व्यवस्था बनी हुई है तो वह इस शहर की छबि को धूमिल करती है। ऐसी स्थिति मे धर्म, संस्कृति और समाज के क्षेत्र मे सजग नागरिकों का मह दायित्व बनता है कि वे यातायात के क्षेत्र मे भी उसी स्तर की व्यवस्था लाने के लिए एकजुट होकर यातायात नियमों के पालन हेतु भी लोगों को जागरूक करने की पहल करें तो निश्चित रूप से उसके सकारात्मक परिणाम आऐंगे। उदाहरण के तौर पर हम उन महानगरों को देखें जहां पार्किग ज़ोन सौ से दो सौ मीटर और कभी उससे भी जादा के दायरों मे होते हैं।

आशा त्रिपाठी की कलम से

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