सत्ता में होने के बावजूद जिले में प्रभावी नहीं हो पा रही कांग्रेस, कई गुटों में बंट गई है पार्टी
जांजगीर। छत्तीसगढ़ राज्य में कांग्रेस के कुछ बड़े कद्दावर नेता हैं जिन से यह उम्मीद की जाती है कि वे ना केवल अपने विधानसभा क्षेत्र का चुनाव जीतेंगे साथ ही आसपास के क्षेत्रों में भी कांग्रेस पार्टी को जीत आएंगे ऐसे नेताओं में भूपेश बघेल, ताम्रध्वज साहू, चरण दास महंत, टी एस सिंहदेव शामिल है। जांजगीर जिले में आज चरणदास महंत के इशारे के बिना प्रशासनिक और संगठनात्मक पत्ता भी नहीं हिलता किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि जांजगीर जिला कांग्रेस कमेटी में सब कुछ ठीक चल रहा है। वर्तमान जिला अध्यक्ष चोलेश्वर चंद्राकर का विरोध प्रायोजित तरीके से इतना किया गया कि पीएल पुनिया ने भले ही चोलेश्वर को नहीं हटाया किंतु उनकी काम करने की स्वतंत्रता अपने आप बेहद कम हो गई, यह इस बात का संकेत है कि सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस जांजगीर जिले में धीरे-धीरे कमजोर हो रही है। यहां पर सीधे दो गुट नजर आते हैं एक स्पीकर गुट है तो दूसरा सीएम गुट सत्ता के दो ध्रुव बनने से पार्टी का सामान्य कार्यकर्ता हताश है। दूसरी तरफ प्रशासनिक हलकों में भी स्वयं को अलग-अलग गुट में रख लिया है ऐसे में वो प्रशासनिक अधिकारी जो केवल नौकरी से वास्ता रखते हैं और राजनीति से दूर रहते हैं उन्होंने काम ना करने का रास्ता पकड़ लिया है क्योंकि जो लोग भी काम लेकर आते हैं वह किसी ना किसी राजनीतिक गुट से संचालित होते हैं इसका सीधा अर्थ है कि जिले का आम नागरिक जिसे राजनीति से कोई वास्ता नहीं उसका तो काम हो ही नहीं सकता । जांजगीर जिले में 6 विधानसभा सीट है जिसमें 2-2-2 कांग्रेस, बीजेपी और बसपा के बीच बांटा है। शक्ति, चंद्रपुर कांग्रेस के हाथ लगी अकलतरा, जांजगीर बीजेपी ले गई और जैजैपुर, पामगढ़ बीएसपी को मिला विधानसभा चुनाव के वक्त बीएसपी और छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस एक साथ थे इस तरह पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने जांजगीर जिले में अपनी राजनैतिक उपस्थिति दर्ज कराई उनके गुजर जाने के बाद बीएसपी के नेता इधर -उधर हो गए हैं । इस कारण जैजैपुर पामगढ़ की जनता अब इस पशोपेश में है कि सत्ता या विपक्ष में रहते तो बेहतर था। दोनों में नहीं है इस राजनीतिक स्थिति का लाभ कांग्रेस चाह कर भी नहीं उठा रही है , इसका कारण संगठन का गुटीय संघर्ष सक्ती, जांजगीर जिले का सबसे पुराना राजनीतिक केंद्र है क्योंकि सक्ती रियासत थी 1998 के बाद सुरेंद्र बहादुर सिंह की राजनैतिक उपस्थिति लगातार छिन होती गई और उसी क्रम में सक्ती पिछड़ता भी चला गया। राज्य के कई ऐसे शहरी क्षेत्र है जो जिला मुख्यालय नहीं है किंतु राजनैतिक रूप से अहम होने के कारण उनका औद्योगिक शहरी विकास हुआ। किंतु यह बात सक्ती के साथ नहीं कही जा सकती। यहां तो शहरीकरण इतना भी बेतरकीब है की राज्य सरकार का कोई भी कानून यहां मान्य नहीं है । यहां की नगर पालिका उनके निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की मानसिक स्थिति से संचालित होती है इस बात का लाभ अवैध प्लाट का धंधा करने वालों ने खूब उठाई शहर के अंदर शहर से लगे हुए एक भी क्षेत्र में टीएनसी अप्रूव्ड एक भी प्रोजेक्ट नहीं बना। इन सबके लिए कहीं ना कहीं राजनैतिक नेतृत्व उत्तरदाई है और आने वाले समय में इस बात का असर चुनाव पर पड़ेगा।