कलम बिक गए नगर के कुछ दलालों के सिर्फ 2-2 हजार की गुलाबी कागज के सामने

सक्ती। पत्रकार और पत्रकारिता के बदलते परिवेश में सोशल मीडिया अब पत्रकारों की नैतिकता को खत्म करता जा रहा है।
वहीं चंद रुपयों के लिए तथाकथित पत्रकार अपनी ही बिरादरी की बखिया उधेड़ने में लगे हुए हैं। 16 नवंबर अंतराष्ट्रीय प्रेस दिवस की बधाइयां तो बहुत दी गई, एक दूसरे को प्रेस दिवस की बधाई देते अपने सोशल मीडिया के स्टेटस में लगाते बहुतों को देखा गया। लेकिन पत्रकारिता का मूल भी लोगों को भूलते या कहें कि माखौल उड़ाते भी देखा। गत कुछ दिनों से नगर में ऐसे ही कुछ दलालनुमा पत्रकार जो चंद रुपयों की लालच में आकर अखबारों में लगे समाचारों के विरुद्ध उल झलूल बातें लिखते दिखाई दिए। सूत्रों की मानें तो उन्हें समाचार लिखने के लिए 2-2 हजार रुपए की बख्सिस मिली थी। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अब चंद रुपयों के लिए अपने ईमान को बेचकर खुश हो रहें हैं। खैर उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं है कि वो जो खेल आज खेल रहें हैं वही उनके साथ भी आगे हो सकता है, कहते हैं ना कि आसमान की ओर मुंह कर थूकने से वह खुद उन्हीं पर वापस गिरता है। दलाली का पाठ पढ़ कुछ ऐसे ही तथाकथित पत्रकार लगातार कलमकारों की कलम को रोकने का प्रयास कर रहें हैं लेकिन इतिहास गवाह है कि नदियों के विपरीत तैरने वाले हमेशा तेज बहाव में बह जाते हैं। प्रेस दिवस के अवसर पर बस यही है कि अपनी कलम को इतनी तेज रख ऐ पत्रकार की तलवार भी कहे मेरी धार तेरे ईमान के सामने ज़र्रा भी नहीं।